मेरी दिल्ली

आज हम दिल्ली की pollution, या फिर उसमें बढ़ते crime की बात करते हैं, मगर कभी दिल्ली को उस लड़की की नज़र से देखो जो वहाँ पली बढ़ी है, और जो पूरी दुनिया में उसे दिल में लिए घूम रही है.. वो कहते हैं ना, कि "आप एक शक़्स को दिल्ली से तो निकाल सकते हो पर, उस शक़्स में से दिल्ली नहीं निकाल सकते"...ये कविता मैंने तब लिखी जब मैं इस बार घर से वापस आयी.. मैं इस बार दिल्ली तीन साल के बाद गयी थी मगर  मुझे कभी ऐसा लगा ही नहीं जैसे में इतने अरसे से यहाँ थी ही नहीं.. मानो जैसे कल की ही बात हो... तब मुझे एहसास हुआ कि मैं तो शायद कभी दिल्ली छोड़ के गयी ही नहीं थी क्यूंकि मेरा दिल तो अभी भी यहीं था..बस इन्ही जज़्बातों को इस कविता में पिरोया है.. उम्मीद करती हूँ आपको पसंद आएगी और जो भी अपने शहर से दूर है, वो इससे relate करेगा...

आज फिर हम दिल्ली से रूबरू हुए,
कई साल के बाद ही सही,
आज हम फिर से मसरूर हुए,
हाँ, आज हम अपनी दिल्ली से रूबरू हुए..

लोगों की शक़्ल बदल गई है लेकिन,
उन गलियों की रौनक तो वही है,
घर की दीवारों पे ताज़े रंग हैं,
मगर गूंज तो वही है,
आँगन की मट्टी कुछ सूख गई है शायद,
पर उसकी सौंधी खुशबू आज भी हवा में बिखरी है,
वो बचपन की किलकारियां आज भी कहीं से सुनाई देती हैं...

वो दिल्ली की सड़कें आज भी मश्गूल हैं,
गाड़ियां एक दूसरे से टकराती हैं,
शायद आज भी गाड़ी किसी को चलानी नहीं आती है,
मगर फन्नेखाँ सभी बन जाते हैं,
और दिल्ली का खास रववैया दिखलाते हैं,
"तू जानता नहीं मेरा बाप कौन है" ये बखूबी फरमाते हैं...

हल्दीराम की दुकान से आज भी चाट और टिक्की की खुशबुएँ आती है,
उन गोलगप्पों में आज भी वही स्वाद आता है,
वो चाँदनी चौन्क की पराँठे वाली गली के पराँठे,
तो आज भी नायाब हैं,
दिल्ली का खाना तो जनाब आज भी लाजवाब है...

मेट्रो की भीड़ में आज भी हम खो जाते हैं,
सैन्ट स्टीफेन्स और तीस हज़ारी को चलती मेट्रो की खिड़की से देखके,
कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो जातीं हैं,
फिर कश्मीरी गेट स्टेशन पे उतर के,
 कूछ जाने पहचाने रास्तों पे चलते जाते हैं,
और वक़्त से भी तेज़ भागती सी दिल्ली का बस मज़ा लेते जाते हैं...

वो कन्नौट प्लेस की गालियाँ हर बार अपनी सी लगती हैं,
यारों के सँग तफ़री की दास्तान इनमें झलकती है..
वो यूनाइटेड कॉफी हाउस का एक कोना हर बार हमसे पूछता है,
"कहाँ लग गए इतने बरसों वापिस आने में,
हम तो कबसे तेरा रास्ता बैठे तकते हैं"...

जनपथ पे खरीदारी करके इक सुरूर सा क्यूँ जगता है,
झुमके, पायल, चूड़ियां तो वही हैं मगर,
हम उन्हें पहनकर हर बार और सुंदर क्यूँ दिखते हैं..

दिल्ली की कुछ बात निराली है,
सबको अपना सा बना लेती है,
हम भी कभी रहा करते थे इसमे,
अब ये हममें रहती है..
आज फिर हम अपनी दिल्ली से रूबरू हुए..

Comments

Popular posts from this blog

The Wisdom I acquired in this Pandemic – a little dose of positivity amidst unpredictability

THE HORRIFYING FACE OF TERROR...

Passion Unleashed: Illuminating the Path to Mental Health and Substance Use Transformation