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Showing posts from December, 2019

सर्दियाँ

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इस बार कुछ ऎसी कड़ाके की सर्दी आयी है जनाब, कि रज़ाई से निकलने का दिल ही नहीं करता, और गरम चाय की प्याली से मन ही नहीं भरता, कुछ इस तरह कोहरे ने धूप को छिपा रखा है, मानो जैसे किसी राज़ को दबा रखा है... उसपर इस बिन मौसम की बरसात ने तो, बस गज़ब ही ढा रखा है... बर्फ भी वक़्त वक़्त पर, ज़मीन को यूँ ढक जाती है, जैसे किसी ने सफ़ेद चादर बिछा रखी है... इन सर्दियों ने तो बस कहर ही ढा रखा है...

वो बच्चा

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वो एक बच्चा ही तो है, लावारिस सा पलता है, मगर फिर भी मन का सच्चा ही तो है ..  वो एक बच्चा ही तो है, जो दिल्ली की सड़कों पर अकेला बैठा रोता है, जो नंगे कमज़ोर बदन पे सर्द हवाओं का लिहाफ लेके सोता है... जिसके नाज़ुक कान माँ की लोरी की जगह, सुनते हैं सिर्फ ट्रैफिक का शोर, और जो हर सुबह हाथ में बस्ते की जगह, कटोरा लेकर बढ़ता है सिग्नल की ओर.. जहाँ उसकी मासूम आँखे टकटकी लगाये बड़ी ही आस से, देखतीं हैं गाड़ियों में सवार कुछ कमज़र्फ लोगों को, के शायद दो पैसे ही मिल जाएं आज रात भूखा पेट भरने को, फिर उनकी दुत्कार से उसका वो महीन चेहरा मुरझा सा जाता है... जो चौराहे पे मज़दूरों सा ईंट और पत्थर बेजान कमर पे ढोता है, जिसका खून पसीना हर रोज़ सड़क पे बहता है, जिसकी आँखों में भी शायद हम तुम जैसा ख्वाबों का बसेरा रहता है, वो एक बच्चा ही तो है, लावारिस सा पलता है, मगर फिर भी मन का सच्चा ही तो है, हाँ वो एक छोटा सा बच्चा ही तो है ..

लड़की की कहानी

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जब भी मैं किसी लड़की पे किसी भी तरह की violence की खबर सुनती हूँ तो दिल दहक जाता है...  मैं भी एक लड़की हूँ और समाज के सभी rules मुझपे भी थोपे गए हैं, चाहे मेरी कोई ग़लती हो या ना हो.. जब मैं hostel में पढ़ती थी तो girls hostel का gate 10 बजे ही बन्द हो जाता था और कोई भी लड़की बाहर नहीं आ सकती थी, पर सब लड़के खुलेआम रात को घूमते थे, और reason बताया जाता था हमारी protection.. अरे हमें ही protect करते हो फिर हमें ही कैद भी करते हो!!! ये कहाँ का rule हुआ?? इस तरह के rules मुझसे पहली वाली generations की लड़कियों पर भी थोपे गये हैं, और आने वाली generations की लड़कियों पर भी थोपे जाएंगे... पर क्यूँ??? क्या लड़कियों को खुलकर जीने का कोई हक़ नहीं? क्या लड़कों पर कोई rules apply नहीं होते?? इन्ही कुछ सवालों के जवाब मैं इस कविता के ज़रिए समाज से पूछ रही हूँ...इस कविता का नाम है "लड़की की कहानी" जो शायद हर उस लड़की की कहानी है जिसने इस दुनिया में जनम लिया है... एक दिन उस खुदा ने सोचा, चलो मैं लड़की बनाऊँ, और इस दुनिया की खूबसूरती कुछ और बढाऊँ... फिर उसने मुझे बना तो दिया, मगर हजारों

एक गुज़ारिश

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हमने तुम्हें ज़िन्दगी माना, प्यार बेशुमार किया, खुद को तुमपे कुर्बान किया, मगर तुमने इसकी सज़ा हमें यूँ दी, कि रिश्तों की कतार में सबसे आखरी मुक़ाम दिया, सिर्फ इसलिए कि हमने चंद ख़्वाहिशों का तुमसे इज़हार किया? चलो, अब कुछ ना कहेंगे हम, और सब कुछ चुपचाप सहेंगे हम, पर तुम कभी हमें उस कतार में आगे आने का मौका तो दो, कभी यूँही नज़र भर हमें देख तो लो, कभी दो पल बैठकर हमसे भी दिल की बात कहो, कभी हमें भी हमनवा होने का सिला तो दो, कभी तो हमें अपना वक़्त ईनाम में दो, कभी हमें अपनी बाँहो के घेरे में पनाह तो दो, कभी तो...

प्यारे daddy

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मैं अपने दादाजी को daddy बुलाती थी...बहुत खट्टा मीठा रिश्ता था हमारा.. मैंने लिखना उनसे ही inspire होकर शुरु किया... वो urdu और english में लिखा करते थे और speaking tree के articles अपनी diary में इकठ्ठा करते थे.. वो mujhe लिखने के लिए हमेशा encourage करते थे और मेरे सबसे बड़े critic भी थे.. उन्हें अपनी poetry सुना कर बड़ा मज़ा आता था क्यूँकि वो बढ़े ध्यान से सुनते थे और ideas भी देते थे.. बड़े ज़िंदादिल और निडर थे वो..कहते थे "मैं तो अपने दिल की बात कहूँगा, फिर चाहे किसी को अच्छा लगे ना लगे!" ये कविता मैं अपने daddy को dedicate कर रही हूँ, जो आज हमारे बीच में नही हैं पर उनका आशीर्वाद हमेशा हमारे साथ रहेगा... बेशक माँ बाप का दर्जा सबसे बड़ा है, मगर तुम तो उनसे भी ऊपर हो, लोग कहते हैं कि जिस दिन हम पैदा हुए थे, तब सबसे ज़्यादा खुश तुम्हीं थे.. प्यार से हमारा माथा चूमा, फिर चुपके से हमें झूले में सोए देखते थे, कि कहीं हम एक हसीन ख्वाब की तरह, आँखे खुलते ही ग़ुम ना हो जाएं... कभी लुक्का छुप्पी खेली, तो कभी हमारे घोड़े बने, कभी प्यार से सर सहलाया, तो कभी शरा

कोई तो आये

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World health organization कहता है कि दुनिया में 450 million लोग मानसिक बीमारी का शिकार हैं और 4 में से 1 शक़्स अपनी ज़िन्दगी में किसी point पे इससे गुज़रता है...ये सभी बीमारियों में से सबसे ज़्यादा disability का कारण है..जितनी ये common है, उतना ही इसके लिए stigma है.. ये तो हुई numbers की बात जो कि शायद बहुत उपरी हैं... असल में एक मानसिक रोग का मरीज़ किन हालातों से गुजरता है ये तो वही जानता है.. मैं एक doctor और scientist हूँ जो इस cause के लिए passionately काम कर रही है.. ये कविता मैं उसी cause को dedicate करती हूँ... ये लिखते समय मेरे ज़हन में मेरे सब वो patients आये जिनके इलाज में मैं शामिल थी... मैं उम्मीद करती हूँ कि इस कविता के ज़रिए मैं उनकी आवाज़ बन सकूँ और mental illness stigma जैसे important issue पे awareness ला सकूँ... कोई तो आये, जो हमें इस गुमनामी के पिंजरे से आज़ाद कराये, इन गूंजती आवाज़ों से हमें बचाये... कभी ये कहतीं हैं, "इस ज़िन्दगी को ख़तम तू कर दे", कभी ये कहतीं हैं, "किसी अपने को बरबाद तू कर दे", उफ्फ, कोई आकर हमारे कानों को अब पत

9 से 5 का फलसफा

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ये 9 से 5 का सफर क्या है, बस एक दुनिया का बनाया फलसफा, क्या है ये 9 से 5 का सफ़र, बस ज़िमेदारियों से भरा एक पुलिंदा... या फिर वो आरामदायक पिंजरा, जिसमें आये तो थे ये सोचकर, कि उम्मीद की खिड़की से उड़ जाएंगे एक दिन, उस खुले आसमान में अपनी जगह बनाने... मगर अफ़सोस ये इल्म ना था हमें, कि इसमें ना तो दरवाज़ें हैं और ना ही खिड़कियां, बस सियाह अंधेरा है, बस घुटन है, पर ना रौशनी जगाने की अब चाहत बाकी है, और ना ही साँस लेने की कोई ख्वाहिश ज़िंदा है... जिसमे नरम बिस्तर तो है, पर नीँद फ़र्ज़ का परिंदा बनकर उड़ गयी है कहीं.. और अगर नीँद भूलकर कभी आंखों की पुतलियों पर दस्तक दे भी जाए, तो ख्वाब रूठ जाते हैं.. इसमें क़ैद होकर हमने, रोटी, कपड़ा और मकान का इंतज़ाम तो बखूबी किया है मगर, खुद के बुने उलझनों के जाल में खुद को ही कहीं खो दिया है... "वो कहाँ पहुँच गया और मैं कहाँ छूट गया", इसी गुथी को सुलझाते सुलझाते, घर से ऑफिस और ऑफिस से घर का सफर बस कट रहा है.. इस कशमकश में कहीं गुमनाम न फ़ना हो जाएं, बस अब यही डर सताता है.. इस कायदे में ज़िंदा लाश से

देसीपन

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जिस्म हमारा है विदेस में, पर दिल कहीँ रह गया है देस में... English तो बोलते हैँ फर्राटेदार हम, पर गाली देते हैँ हिंदीं में आज भी... हाँ coffee का स्वाद लाजवाब है, मगर मसाला चाय से दिन की शुरुआत है... माना shakira की belly बहुत लचकदार है, पर थिरकते हैँ हम madhuri के ठुमकों की ताल पे... बेशक सारी दुनिया फिदा है tom cruise और brad pitt के charm पे, मगर दिल धड़कता है तो शारुख खान के अंदाज़ पे... हम कमाते तो हैं डॉलरों में शान से, पर भाव तोल करते हैं india के हिसाब से... माना कि jeans और t-shirt में style बहुत खास है, मगर संवरते हैं साड़ी और बिन्दी से हम आज भी... चलो माना कि burger और pizza के taste का जवाब नहीं, पर पेट भरता है तो रोटी सब्ज़ी और अचार से... हाँ माना कि cakes और pastries में स्वाद बेहिसाब है, मगर बेसन के लड्डुओं में घर की याद है.. हर बार सोचते हैं office potluck में continental recipe सीख के खिलाएंगे, पर फिर नज़र पड़ती है sanjeev kapoor की 'तड़के वाली दाल' पे... चलो माना कि काँटे छुरी से खाने में तहज़ीब है,

My Delhi

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I came face to face with Delhi today, And it gave me an extreme sense of joy after a very long time, Yes, I came face to face with my very own Delhi today… Peoples’ appearances have changed, But the hustle and bustle of those lively streets is still the same, The walls of my house are now painted in fresh bright color,  But the echoing of voices has not yet changed, The mud in the backyard has probably turned dry over the years, But its fragrance is still scattered in the air as if it just got wet from the rains,  I can still hear those faint chuckles from my childhood somewhere in the background… Those Delhi streets are still crowded and busy, The cars keep colliding with each other in a tizzy, People don’t know how to drive properly even today, But they pretend to be smart as a whip, And keep flaunting their ‘Delhi attitude’ and wit, “You don’t have any idea, who my dad is!” they tell you in a flip.. You can still smell the sweet aroma of chaat and tikki at the Haldiram’s

मेरी दिल्ली

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आज हम दिल्ली की pollution, या फिर उसमें बढ़ते crime की बात करते हैं, मगर कभी दिल्ली को उस लड़की की नज़र से देखो जो वहाँ पली बढ़ी है, और जो पूरी दुनिया में उसे दिल में लिए घूम रही है.. वो कहते हैं ना, कि "आप एक शक़्स को दिल्ली से तो निकाल सकते हो पर, उस शक़्स में से दिल्ली नहीं निकाल सकते"...ये कविता मैंने तब लिखी जब मैं इस बार घर से वापस आयी.. मैं इस बार दिल्ली तीन साल के बाद गयी थी मगर  मुझे कभी ऐसा लगा ही नहीं जैसे में इतने अरसे से यहाँ थी ही नहीं.. मानो जैसे कल की ही बात हो... तब मुझे एहसास हुआ कि मैं तो शायद कभी दिल्ली छोड़ के गयी ही नहीं थी क्यूंकि मेरा दिल तो अभी भी यहीं था..बस इन्ही जज़्बातों को इस कविता में पिरोया है.. उम्मीद करती हूँ आपको पसंद आएगी और जो भी अपने शहर से दूर है, वो इससे relate करेगा... आज फिर हम दिल्ली से रूबरू हुए, कई साल के बाद ही सही, आज हम फिर से मसरूर हुए, हाँ, आज हम अपनी दिल्ली से रूबरू हुए.. लोगों की शक़्ल बदल गई है लेकिन, उन गलियों की रौनक तो वही है, घर की दीवारों पे ताज़े रंग हैं, मगर गूंज तो वही है, आँगन की मट्टी कुछ सूख गई है

THE HORRIFYING FACE OF TERROR...

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Mumbai ( hotel taj, oberoi tritand, nariman house), 26-29 nov 2008, more than 160 killed & about 300 injured... the most terrible attack on mankind in the Indian history.. This is the horrifying face of terror, unimaginable terror... 3 nights & 2 days of horror past by, still a lot of price to pay by the common man & the nation... The images & clips shown on the television has left me numb & shuddering from inside.. i can still feel those goose bumps, my heartbeat has still not come back to normal, i still wish that this should be a bad bad nightmare & not the truth... but very sadly, the bitterness of this truth has captured our country & made us a hostage of terrorism... WHY?? WHY WITH US?? Why always a common innocent man has to suffer?? What’s our fault?? What’s anybody’s fault for that matter?? Hundreds who have lost their lives in a matter of a few hours, never would have thought that they would never be able to return back alive from a di

इल्तिजा

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ऐ ज़िन्दगी एक इल्तिजा है तुझसे, कि हमें अपने आगोश में ले ले, क्यूँ नासूर बनकर चूभती है, क्यूँ शम्मा बनकर पिघलती है, कभी तो इस दिल के झरोखे से हमें अपनी झलक दिखला, दो पल ही सही, कभी तो सुकून से प्यार के किस्से सुना.. ऐ ज़िन्दगी कभी तो हमपे ये मेहरबानी फरमा.. तुझे जीने की चाह में हम रोज़ मरते हैं, तुझमें सफ़र करने को हम नजाने क्यूँ मचलते हैं, जबकी हमको ये मालूम है कि तू हमें दगा देके जाएगी, फिर भी हम तेरे दीदार को दीवानो की तरह तरसते हैं.. कैसा एकतरफा इश्क़ है ये, की तुझको पाने के लिए हम दर दर भटकते हैं, ऐ ज़िन्दगी हम तुझसे क्यूँ इतनी मोहोब्बत करते हैं..

वो नज़्में

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Have you ever read your old diary and reminisced those moments and that time when you used to write your heart out. When you had thousands of words and thoughts  floating in your mind and poured them all out in that diary. When you yearned to fly high but were still cautious about that unknown something which was stopping you... Something similar happened to me when I found my old diary with my own old poems written in it a few years back.. I felt a sense of pride that I was such an uninhibited writer at one point, I also wondered why did I stop writing all these years.. was it because the words dried out or responsibilities and life took over.. thats what I have explored in this poem... But whatever it is, I believe that your words and poems are a means to unleash your most hidden dreams and desires, so you must keep writing and exploring the real you in order to break free them from the cage of societal norms!  आज एक बक्सा मिला अपने कमरे में, उसमें से एक पुरानी d

ZINDGI KE RANG...

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Zindgi hai kuch bolti, Gehre se kuch raaz hai kholti, dil mein dafn kar diya tha jinhe, unhe har saans mein hai tatolti... gungunati hai chand pyar ke nagme, gaati hai kuch madhoshi ki gazlen, rumaani se andaz mein apne, waqt ki har taal pe jhoomti, dhadkan ke har taar ko hai chedti... kya kya rang dikhlaaye hai isne, kala bhi aur safed bhi, ab kuch naya sa rang dikhta hai, sama bhi kuch taza taza sa lagta hai... mann kehta hai bus thirakte jaayen, hur armaan ko motiyon se sajaayen, aur phir jazbaaton ke samandar mein beh jaayen... aankhon mein ik chamak si hai, kaano mein ik thirak si hai, har khwaahish kuch poori si lagti hai.. agar yahi hain zindgi ke rang , to in rango mein humen rangne do, iska har panna rangeen sa karne do, pyar ke kalam se tasveer bharne do, humen zindgi se do baatein to karne do....

DHADKANE...

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dil ki chand dhadkane chupke se kuch gunguna ke chal di, ik halki si muskaan saja ke chal di... humne bade naazon se panaah diya inhe, dil ke kaarvan mein shaamil kiya inhe, phir bhi zaalim daga deke chal di!! socha tha humara paigaam leke jaayengi, haale-dil dilnashi ko sunake jaayengi, pur ye to khaamoshi ke dhaage se apne hothon ko sil ke chal di, humpe bewafai ka ilzaam lagake chal di... zindgi ko apna mohtaaj banaya, lamhon ko apni muthi mein dabaya, aur humen apna gulaam banake chal di... kabhi apni si lagne waali, aaj ajnabi si kyun hain?? kabhi doston si lagnne waali, aaj kaafir si kyun hain?? dil ki galiyon mein aaj itna soonapan kyun hai?? har sawal itna aaj laajawab kyun hai?? ye gar tham jaayen, to kuch der ko to karar aa jaaye, thaki thaki si zindgi ko aaram aa jaaye, use ek naya sa naam mil jaaye.... pur zindgi hai ki kambakht inhe chhodti hi nahi!! har zulm sehti hai pur inse muh modti hi nahi!! kehti hai, "inke dagabaaz hone ka koi shikwa to nahi, pur inke bina mer