कोई तो आये
कोई तो आये,
जो हमें इस गुमनामी के पिंजरे से आज़ाद कराये,
इन गूंजती आवाज़ों से हमें बचाये...
कभी ये कहतीं हैं,
"इस ज़िन्दगी को ख़तम तू कर दे",
कभी ये कहतीं हैं,
"किसी अपने को बरबाद तू कर दे",
उफ्फ, कोई आकर हमारे कानों को अब पत्थर सा कर दे!
क्या करें, कहाँ जाएँ,
अपना सीना छल्ली कर जाएँ,
छत से कूद जाएँ,
इस पल ऐसा क्या कर जाएँ,
इन खौफनाक आवाज़ो से हम कैसे पीछा छुडाएं,
कोई आकर ये हमको समझाए...
कभी तो हम ऐसे गमगीन हो जाते हैं,
कि बिस्तर से भी उठ नहीं पाते हैं,
फिर खुद को ख़त्म करने के सौ तरीक़े अपनाते हैं,
कभी हम हद्द से ज़्यादा खुश हो जाते हैं,
इतने कि संभल नहीं पाते हैं..
सुना है इसको 'पागलपन' कहलाते हैं,
ये जो भी है, कोई तो हमें इस कहर से बचाये...
गम और खुशी के इस भंवर से निकलने का रास्ता बतलाए...
जब हम किसी से अपना हाल बताते हैं,
तो वो हमें 'नाटकबाज़' बुलाते हैं,
कुछ तो हमें ही कुसूरवार ठहराते हैं,
क्या क्या नहीं कह जाते हैं,
"ये सब तेरा वहम है प्यारे!"
"तू बस attention चाहता है!"
"तेरे ही बुरे कर्मों का फल तेरे सामने आता है!"
"तुझपे कोई बुरा साया लहराता है!"
और ये तक कहते हैं,
"कि तू अगर किसी से अपना हाल कहेगा,
तो ये ज़माना तुझे 'पागल' करार कर देगा"..
क्या सिर्फ इसलिए कि हमारे ज़ख़्म नज़र नहीं आते हैं?
फिर जब हम हिम्मत जुटाके इलाज को जाते हैं,
तो doctor इसे 'दिमाग़ी बीमारी' बताते हैं...
दवा तो दे देते हैं,
मगर हमारे अन्दर के तूफानों को,
अनदेखा कर देते हैं...
इन गैरों से क्या शिक़वा,
जब अपने भी हमें समझ नही पाते हैं...
और अगर कहीं समझ भी जाएं,
तो कैसे हमें आराम दिलाएं,
इस बात से अनजान रह जाते हैं..
कोई तो उन्हें सही रास्ता दिखलाये...
हम पूछते हैं दुनिया वालों से,
कि वो दिन कब आएगा,
जब इस 'दिमाग़ी बीमारी' को भी,
सर्दी, खाँसी, ज़ुकाम सा आम समझा जाएगा,
इसको सहने वाले के चेहरे से,
शर्म का पर्दा हटाया जाएगा...
वो दिन कब आएगा जब उस शक़्स को,
'पागल' ना बुलाया जाएगा,
और दुनिया का एक हिस्सा समझा जाएगा..
वो दिन कब आएगा,
जब मंदिर, मस्जिद, स्कूल और दफ्तर में,
बिना जिझके इसकी बात की जाएगी,
और कोई मसीहा बन कर जागरूकता जगायेगा...
कोई तो आये..
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