प्यारे daddy
मैं अपने दादाजी को daddy बुलाती थी...बहुत खट्टा मीठा रिश्ता था हमारा.. मैंने लिखना उनसे ही inspire होकर शुरु किया... वो urdu और english में लिखा करते थे और speaking tree के articles अपनी diary में इकठ्ठा करते थे.. वो mujhe लिखने के लिए हमेशा encourage करते थे और मेरे सबसे बड़े critic भी थे.. उन्हें अपनी poetry सुना कर बड़ा मज़ा आता था क्यूँकि वो बढ़े ध्यान से सुनते थे और ideas भी देते थे.. बड़े ज़िंदादिल और निडर थे वो..कहते थे "मैं तो अपने दिल की बात कहूँगा, फिर चाहे किसी को अच्छा लगे ना लगे!" ये कविता मैं अपने daddy को dedicate कर रही हूँ, जो आज हमारे बीच में नही हैं पर उनका आशीर्वाद हमेशा हमारे साथ रहेगा...
बेशक माँ बाप का दर्जा सबसे बड़ा है,
मगर तुम तो उनसे भी ऊपर हो,
लोग कहते हैं कि जिस दिन हम पैदा हुए थे,
तब सबसे ज़्यादा खुश तुम्हीं थे..
प्यार से हमारा माथा चूमा,
फिर चुपके से हमें झूले में सोए देखते थे,
कि कहीं हम एक हसीन ख्वाब की तरह,
आँखे खुलते ही ग़ुम ना हो जाएं...
कभी लुक्का छुप्पी खेली,
तो कभी हमारे घोड़े बने,
कभी प्यार से सर सहलाया,
तो कभी शरारत करने पर गुस्से से आँखे दिखायीं,
मगर माँ की डाँट से तुम्हीं बचाया करते थे...
फिर जब हम स्कूल गए,
तो सबसे फिक्रमंद भी तुम्हीं थे,
शायद ये सोचकर,
कि कैसे हमारे नन्हें से कदम,
दुनिया की दौड़ का सामना करेंगे..
फिर जब हम स्कूल से वापिस आते,
तो bus stop पर लेने भी तुम्ही जाते,
और दौड़कर हमें गले से भी लगाते,
फिर पुराने scooter पे घुमाने लेके जाते,
कभी अप्पू घर तो कभी india gate की सैर कराते...
जब हमने जवानी के पड़ाव पे कदम रखा,
तब हमारे ज़हन में हज़ारों सवाल उमड़ते थे,
जिनका जवाब ढूँढने के लिए लफ्ज़ भी मंडराया करते थे,
उन्हें इक्कठा करने के लिए कलम और diary भी तुम्हीं दिया करते थे...
फिर जब कभी तुम हमसे पूछते,
कि "क्या आज कुछ नया लिखा",
और हम सिर्फ़ यही कह पाते,
"नही, लफ्ज़ों की आज कुछ कमी सी पड़ गयी",
तब नए लफ़्ज़ों का पिटारा भी तुम्हीं बना करते थे...
और फिर जब ज़िंदगी का फलसफा ज़रा समझ आने लगा,
तो हमपे एक बगावत का जुनून छाने लगा,
तब तुमने हमें 'बिन वजह का बाघी', ये नाम दे दिया,
मगर हमें निडर होकर अपनी बात कहना भी तुम्हीं सिखाते थे...
फिर एक दिन उस खुदा ने अजब खेल खेला,
और तुमसे तुम्हारा हमसफर छीन लिया,
तब हमसे ज़्यादा तुम्हे उसकी कमी खलती थी,
और तुम उस हर शक़्स से शिक़वा करते थे,
जो उसके सबसे करीब हुआ करता था,
शायद यही एक ज़रिया था,
जो तुम्हे उसके नज़दीक होने का एहसास दिलाया करता था..
फिर वक़्त का काँटा चलता रहा,
और हम ज़िन्दगी को और करीब से समझते रहे,
और ऐसे ही गिरते संभलते एक दिन doctor भी बन गए,
उस दिन हमारी degree लेने भी तुम्ही गए थे,
जिसे देखकर सबसे ज़्यादा फ़क्र भी तुम्हें ही हुआ था..
फिर जब कभी हम ज़िन्दगी की राहों पे चलते चलते थक जाते,
तब ये कहकर कि, "गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में,
वो तिफ़ल क्या गिरे जो घुटनों के बल चले",
हमारा हौंसला भी तुम्हीं बढ़ाते थे...
फिर वक़्त ज़रा और गुज़रा,
और हम जीने की जद्दोजहद में ये तो भूल ही गए,
कि तुम अब अपनी ज़िंदगी के आख़री कगार पर हो...
फिर वो दिन आया,
जब उस खुदा ने तुम्हे अपने पास बुलाया,
उस दिन हम रोये तो थे ये सोचकर,
कि तुम्हें आख़री वक़्त में देख न सके,
पर ये तसल्ली भी थी कहीं,
कि तुमने अपनी पूरी ज़िन्दगी बड़ी शान से जी है,
और अब तुम जहाँ भी होगे,
अपने हमसफर के पास महफूज़ होगे,
और उस आसमान में सबसे चमकीला सितारा बनकर,
अपनी रौशनी हमपे बिखेरते होगे,
Daddy, तुम दूर होकर भी हमेशा हमसे करीब होगे...
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