वक़्त वक़्त की बात




आज बड़े अरसे के बाद ज़िन्दगी की भाग दौड़ से ज़रा फ़ुरसत मिली,
तो दिल के शहर का मुआना करने बैठे,
अजब सा सूनापन था दिल के ज़मीन पे,
और धड़कनों के घरों में भी सन्नाटा छाया था,
फिर ज़हन में एक सवाल आया कि,
आज इस दिल की गलियाँ यूँ बियाबान क्यूँ हैं,
जहाँ उम्मीद के फूल खिला करते थे,
आज मायूसी का सेहरा क्यूँ है,
बस दो बूँद ख़ुशी के ही तो माँगे थे उस परवरदिगार से,
फिर हमारी झोली में ग़मों का दरिया क्यूँ है...
शायद वक़्त वक़्त की बात है,
हम आज भी इसके मोहताज हैं,
कभी तो ये कम्बख्त मिलेगा कहीं,
तब हम एक फ़रियाद करेंगे उससे और कहेंगे,
कि ऐ वक़्त, ले चल हमें उस लम्हे में,
जब खुशियाँ सस्ती हुआ करतीं थीं,
आजकल तो ये आलम है कि,
ज़रा सी खुशी खरीद भी लें,
तो दुनिया हमसे हमारी औकात पूछती है,
हमारी ही ख़ुशी का हमसे हिसाब पूछती है,
ये कमज़र्फ दुनिया हमारे होने का सुबूत ढूँढती है...



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