आईने से गुफ़्तगू
हमने आईने से पूछा तुझपे रात क्यूँ छाई है,
कल बहारों का मौसम था,
आज काली घटा क्यूँ घिर आयी है,
उसपर वो हँसकर बोला,
मैं क्या जानूँ इन बहारों में ख़लल का सबब,
मैं तो सिर्फ़ काँच का एक बेजान टुकड़ा हूँ,
अक़्स तो तेरा है जो मुझपे उभर के आया है,
कभी वक़्त मिले तो मुझमे झाँककर देखना,
किसी कोने में उन मुरझाये फूलों के निशान मिल जाएंगे...
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