ये 9 से 5 का सफर क्या है, बस एक दुनिया का बनाया फलसफा, क्या है ये 9 से 5 का सफ़र, बस ज़िमेदारियों से भरा एक पुलिंदा... या फिर वो आरामदायक पिंजरा, जिसमें आये तो थे ये सोचकर, कि उम्मीद की खिड़की से उड़ जाएंगे एक दिन, उस खुले आसमान में अपनी जगह बनाने... मगर अफ़सोस ये इल्म ना था हमें, कि इसमें ना तो दरवाज़ें हैं और ना ही खिड़कियां, बस सियाह अंधेरा है, बस घुटन है, पर ना रौशनी जगाने की अब चाहत बाकी है, और ना ही साँस लेने की कोई ख्वाहिश ज़िंदा है... जिसमे नरम बिस्तर तो है, पर नीँद फ़र्ज़ का परिंदा बनकर उड़ गयी है कहीं.. और अगर नीँद भूलकर कभी आंखों की पुतलियों पर दस्तक दे भी जाए, तो ख्वाब रूठ जाते हैं.. इसमें क़ैद होकर हमने, रोटी, कपड़ा और मकान का इंतज़ाम तो बखूबी किया है मगर, खुद के बुने उलझनों के जाल में खुद को ही कहीं खो दिया है... "वो कहाँ पहुँच गया और मैं कहाँ छूट गया", इसी गुथी को सुलझाते सुलझाते, घर से ऑफिस और ऑफिस से घर का सफर बस कट रहा है.. इस कशमकश में कहीं गुमनाम न फ़ना हो जाएं, बस अब यही डर सताता है.. इस कायदे में ज़िंदा लाश से...